Bhagavad Gita Part 92: इस संसार के बंधन से व्यक्ति कैसे मुक्त हो सकता है? आखिर दिव्यज्ञान क्या है ?
भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, सर्वव्यापी परमात्मा किसी के पापमय कर्मों या पुण्य कर्मों में स्वयं को लिप्त नहीं करते।
विस्तार
भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, सर्वव्यापी परमात्मा किसी के पापमय कर्मों या पुण्य कर्मों में स्वयं को लिप्त नहीं करते।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः, तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् (अध्याय 5 श्लोक 16 )
ज्ञानेन-दिव्य ज्ञान द्वारा; तु–लेकिन; तत्-वह; अज्ञानम्-अज्ञानता; येषाम् जिनका; नाशितम् नष्ट हो जाती है; आत्मनः-आत्मा का; तेषाम्-उनके; आदित्यवत्-सूर्य के समान; ज्ञानम्-ज्ञान; प्रकाशयति-प्रकाशित करता है; तत्-उस; परम्-परम तत्त्व।
अर्थ - किन्तु जिनकी आत्मा का अज्ञान दिव्यज्ञान से विनष्ट हो जाता है उस ज्ञान से परमतत्त्व का प्रकाश उसी प्रकार से प्रकाशित हो जाता है जैसे दिन में सूर्य के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण समझाते है कि जैसे सूर्य का प्रकाश अंधकार को दूर करता है उसी प्रकार दिव्यज्ञान से आत्मा का अज्ञान दूर हो जाता है। ऐसे में एक मनुष्य को सदैव यह कोशिश करनी चाहिये कि वह धीरे 2 कर्मयोग और ज्ञानयोग का अभ्यास करे ताकि उसके हृदय में भी दिव्यज्ञान पैदा हो।
तबुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः, गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिषूतकल्मषाः (अध्याय 5 श्लोक 17 )
तत्-बुद्धयः-वह जिनकी बुद्धि भगवान की ओर निर्देशित है; तत्-आत्मानः-वे जिनका अंत:करण केवल भगवान में तल्लीन होता है; तत्-निष्ठाः-वे जिनकी बुद्धि भगवान में दृढ़ विश्वास करती है; तत्-परायणाः-भगवान को अपना लक्ष्य और आश्रय बनाने का प्रयास करना; गच्छन्ति–जाते हैं; अपुन:-आवृत्तिम्-वापस नहीं आते; ज्ञान-ज्ञान द्वारा निर्धूत निवारण होना; कल्मषाः-पाप।
अर्थ - वे जिनकी बुद्धि भगवान में स्थिर हो जाती है और जो भगवान में सच्ची श्रद्धा रखकर उन्हें परम लक्ष्य मानकर उनमें पूर्णतया तल्लीन हो जाते हैं, वे मनुष्य शीघ्र ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं जहाँ से फिर कभी वापस नहीं आते और उनके सभी पाप ज्ञान के प्रकाश से मिट जाते हैं।
व्याख्या - हर जीव यह चाहता है कि वो इस संसार के बंधन और दुःखों से मुक्त हो जाए लेकिन उसे रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं होता है जिसके कारण वो बार बार अपनी कामनाओं और इच्छाओं के वशीभूत होकर काम क्रोध और मोह में पड़ा रहता है लेकिन ज्ञानयोग एक ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर मनुष्य की बुद्धि श्री भगवान में स्थिर हो सकती है।
कृष्ण कहते है, भगवान् में सच्ची शृद्धा रखनी चाहिए और उन्हें ही परम लक्ष्य मानना चाहिए। जिनकी बुद्धि संसार के विषय भोगों से हटकर ईश्वर में लींन हो जाती है वो लोग ज्ञान के प्रकाश के प्रभाव के कारण फिर कभी संसार के बंधन में नहीं फंसते है।
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