Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, राजा दशरथ के लाख समझाने के बाद भी रानी कैकेयी ने राम के वनवास जाने की ज़िद को नहीं छोड़ा।

वाल्मिकी रामायण

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Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, राजा दशरथ के लाख समझाने के बाद भी रानी कैकेयी ने राम के वनवास जाने की ज़िद को नहीं छोड़ा। इसके बाद, इक्ष्वाकुनन्दन राजा दशरथ पुत्रशोक से पीड़ित हो पृथ्वी पर अचेत पड़े थे और वेदना से छटपटा रहे थे, उन्हें इस अवस्था में देखकर पापिनी कैकेयी इस प्रकार बोली। आपने मुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी और जब मैंने उन्हें माँगा, तब आप इस प्रकार सन्न होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो कोई पाप करके पछता रहे हों, यह क्या बात है? आपको सत्पुरुषों की मर्यादा में स्थिर रहना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुष सत्य को ही सबसे श्रेष्ठ धर्म बतलाते हैं, उस सत्य का सहारा लेकर मैंने आपको धर्म का पालन करने के लिये ही प्रेरित किया है। यदि आपकी बुद्धि धर्म में स्थित है तो सत्य का अनुसरण कीजिये।

साधुशिरोमणे ! मेरा माँगा हुआ वह वर सफल होना चाहिये, क्योंकि आप स्वयं ही उस वर के दाता हैं। धर्म के ही अभीष्ट फल की सिद्धि के लिये तथा मेरी प्रेरणा से भी आप अपने पुत्र श्रीराम को घर से निकाल दीजिये। मैं अपने इस कथन को तीन बार दुहराती हूँ। इस प्रकार कैकेयी ने जब निःशङ्क होकर राजा को प्रेरित किया, तब वे उस सत्यरूपी बन्धन को वैसे ही नहीं खोल सके, उस बन्धन से अपने को उसी तरह नहीं मुक्त कर सके, जैसे राजा बलि इन्द्र प्रेरित वामन के पाश से अपने को मुक्त करने में असमर्थ हो गये थे। दो पहियों के बीच में फँसकर वहाँ से निकलने की चेष्टा करने वाले गाड़ी के बैल की भाँति उनका हृदय उद्भ्रान्त हो उठा था और उनके मुख की कान्ति भी फीकी पड़ गयी थी।

अपने विकल नेत्रों से कुछ भी देखने में असमर्थ से होकर भूपाल दशरथ ने बड़ी कठिनाई से धैर्य धारण करके अपने हृदय को सँभाला और कैकेयी से इस प्रकार कहा, मैंने अग्नि के समीप ‘साष्ठं ते गृभ्णामि सौभगत्वाय हस्तम्’ इत्यादि वैदिक मन्त्र का पाठ करके तेरे जिस हाथ को पकड़ा था, उसे आज छोड़ रहा हूँ। साथ ही तेरे और अपने द्वारा उत्पन्न हुए तेरे पुत्र का भी त्याग करता हूँ। रात बीत गयी। सूर्योदय होते ही सब लोग निश्चय ही श्रीराम का राज्याभिषेक करने के लिये मुझे शीघ्रता करने को कहेंगे।

मैं पहले श्रीराम के राज्याभिषेक के समाचार से जो जन-समुदाय का हर्षोल्लास से परिपूर्ण उन्नत मुख देख चुका हूँ, वैसा देखने के पश्चात् आज पुनः उसी जनता के हर्ष और आनन्द से शून्य, नीचे लटके हुए मुख को मैं नहीं देख सकूँगा। महात्मा राजा दशरथ के कैकेयी से इस तरह की बातें करते-करते ही चन्द्रमा और नक्षत्रमालाओं से अलंकृत वह पुण्यमयी रजनी बीत गयी और प्रभातकाल आ गया। तदनन्तर बातचीत के मर्म को समझने वाली पापचारिणी कैकेयी रोष से मूर्च्छित-सी होकर राजा से पुनः कठोर वाणी में बोली, आप बिना किसी क्लेश के अपने पुत्र श्रीराम को यहाँ बुलवाइये।

मेरे पुत्र को राज्यपर प्रतिष्ठित कीजिये और श्रीराम को वन में भेजकर मुझे निष्कण्टक बनाइये; तभी आप कृतकृत्य हो सकेंगे। तीखे कोडे की मार से पीड़ित हुए उत्तम अश्व की भाँति कैकेयी द्वारा बारंबार प्रेरित होने पर व्यथित हुए

राजा दशरथ ने इस प्रकार कहा, मेरी चेतना लुप्त होती जा रही है। इसलिये इस समय मैं अपने धर्मपरायण परम प्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को देखना चाहता हूँ।