Bhagavad Gita Part 96: सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को कौन प्राप्त हो सकता है ? समझिए

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Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, आम तौर पर हमें लगता है कि शरीर के सुख आनंद देते है लेकिन वो दुःख के कारण बनते है।

भगवतगीता

विस्तार

Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, आम तौर पर हमें लगता है कि शरीर के सुख आनंद देते है लेकिन वो दुःख के कारण बनते है।

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् , कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः (अध्याय 5 श्लोक 23 )

शक्नोति-समर्थ है; इह-एव–इसी शरीर में; यः-जो; सोढुम्-सहन करना; प्राक्-पहले; शरीर-शरीर; विमोक्षणात्-त्याग करना; काम इच्छा; क्रोध-क्रोध से; उद्भवम्-उत्पन्न वेगम्-बल से; सः-वह; युक्तः-योगी; सः-वही व्यक्ति; सुखी-सुखी; नरः-व्यक्ति।

अर्थ - वे मनुष्य ही योगी हैं जो शरीर को त्यागने से पूर्व कामनाओं और क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होते हैं, केवल वही संसार मे सुखी रहते हैं।

व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण आपको समझाते है कि अगर आपको सुखी रहना है तो अपनी कामनाओं और इच्छाओं पर लगाम लगानी ही होगी। आम तौर पर हमने " काम" को शरीर का भोग समझा हुआ है लेकिन ऐसा नहीं है। श्री कृष्ण का आशय संसार की कामनाओं से है। हम सब इस बात को समझते है कि जब मनुष्य की कोई इच्छा पूरी नहीं होती है तो उसे क्रोध आ जाता है और क्रोध से बुद्धि विवेक नष्ट हो जाते है और व्यक्ति संसार के दुःखों को प्राप्त हो जाता है। इसलिए आपकी कामना और आपका क्रोध ही आपका सबसे बड़ा शत्रु है और जब तक हम इसे नष्ट नहीं करेंगे हम संसार में सुखी नहीं हो सकते हैं।

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्योतिरेव यः, स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति (अध्याय 5 श्लोक 24 )

यः-जो; अन्त:-सुखः-अपनी अन्तरात्मा में सुखी; अन्त:-आरामः-आत्मिक आनन्द में अन्तर्मुखी; तथा उसी प्रकार से; अन्तः-ज्योतिः-आंतरिक प्रकाश से प्रकाशित; यः-जो; स:-वह; योगी-योगी; ब्रह्म-निर्वाणं-भौतिक जीवन से मुक्ति; ब्रह्म-भूतः-भगवान में एकनिष्ठ; अधिगच्छति–प्राप्त करना।

अर्थ - जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुख वाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है।

व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण समझाते है कि व्यक्ति को सदैव अपनी आत्मा को समझने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि वह परमात्मा की अंश है। जो व्यक्ति आत्मा से जुड़ा हुआ दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है वो सदैव अपनी बुद्धि को शुद्ध रख सकता है। केवल उसी व्यक्ति की बुद्धि परमात्मा के साथ एकीकार कर सकती है। ऐसे में व्यक्ति को ज्ञानयोग का सहारा लेकर अपनी बुद्धि को शुद्ध करना चाहिए। जब किसी व्यक्ति को भौतिक जगत के सुख निम्न लगने लगे तब वह व्यक्ति श्री भगवान् के चरणों की भक्ति को प्राप्त कर सकता है।

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