Valmiki Ramayana Part 94: राम को वन भेजने की बात सुनकर डर से कांप उठे दशरथ! कैकेयी से की विनती
Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, उचित समय और राजा की दशा को देखकर कैकेयी ने अपने पति राजा दशरथ से श्री राम के लिए वनवास और अपने बेटे भरत के लिए राज्य माँगा। ऐसे कठोर वचन सुनकर राजा दशरथ को बड़ी चिंता हुई
विस्तार
Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, उचित समय और राजा की दशा को देखकर कैकेयी ने अपने पति राजा दशरथ से श्री राम के लिए वनवास और अपने बेटे भरत के लिए राज्य माँगा। ऐसे कठोर वचन सुनकर राजा दशरथ को बड़ी चिंता हुई और वो संताप करने लगे। उस समय राजा को मूर्च्छित कर देने वाला महान् दुःख प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् होश में आने पर कैकेयी की बात को याद करके उन्हें पुनः संताप होने लगा। जैसे किसी
बाघिन को देखकर मृग व्यथित हो जाता है, उसी प्रकार वे नरेश कैकेयी को देखकर पीड़ित एवं व्याकुल हो उठे। बिस्तररहित खाली भूमि पर बैठे हुए राजा लंबी साँस खींचने लगे मानो कोई महा विषैला सर्प किसी मण्डल में मन्त्रों द्वारा अवरुद्ध हो गया हो।
राजा दशरथ रोष में भरकर ‘अहो ! धिक्कार है यह कहकर पुनः मूर्च्छित हो गये। शोक के कारण उनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी। बहुत देर के बाद जब उन्हें फिर चेत हुआ, तब वे नरेश अत्यन्त दुःखी होकर कैकेयी को अपने तेज से दग्ध-सी करते हुए क्रोधपूर्वक उससे बोले, तू इस कुल का विनाश करने वाली डाइन है। पापिनि ! बता, मैंने अथवा श्रीराम ने तेरा क्या बिगाड़ा है? श्री रामचन्द्र तो तेरे साथ सदा सगी माता का-सा बर्ताव करते आये हैं; फिर तू किसलिये उनका इस तरह अनिष्ट करने पर उतारू हो गयी है। मैंने अपने विनाश के लिये ही तुझे अपने घर में लाकर रखा था। मैं नहीं जानता था कि तू राजकन्या के रूप में तीखे विषवाली नागिन है। जब सारा जीव-जगत् श्रीराम के गुणों की प्रशंसा करता है, तब मैं किस अपराध के कारण अपने उस प्यारे पुत्र को त्याग दूं?
मैं कौसल्या और सुमित्रा को भी छोड़ सकता हूँ, राजलक्ष्मी का भी परित्याग कर सकता हूँ, परंतु अपने प्राणस्वरूप पितृभक्त श्रीराम को नहीं छोड़ सकता। अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को देखते ही मेरे हृदय में परम प्रेम उमड़ आता है; परंतु जब मैं श्रीराम को नहीं देखता हूँ, तब मेरी चेतना नष्ट होने लगती है। सम्भव है सूर्य के बिना यह संसार टिक सके अथवा पानी के बिना खेती उपज सके, परंतु श्रीराम के बिना मेरे शरीर में प्राण नहीं रह सकते। पापपूर्ण निश्चय वाली कैकेयि ! तू इस निश्चय अथवा दुराग्रह को त्याग दे। यह लो, मैं तेरे पैरों पर अपना मस्तक रखता हूँ, मुझ पर प्रसन्न हो जा। पापिनि ! तूने ऐसी परम क्रूरतापूर्ण बात किसलिये सोची है?
तेरे प्रथम वर के अनुसार मैं भरत का राज्याभिषेक स्वीकार करता हूँ। आज से पहले तूने कभी कोई ऐसा आचरण नहीं किया है, जो अनुचित अथवा मेरे लिये अप्रिय हो, इसीलिये तेरी आज की बात पर भी मुझे विश्वास नहीं होता है। जो अत्यन्त सुकुमार और धर्म में दृढ़तापूर्वक मन लगाये रखने वाले हैं, उन्हीं श्रीराम को वनवास देना तुझे कैसे रुचिकर जान पड़ता है? अहो ! तेरा हृदय बड़ा कठोर है। जो सदा तेरी सेवा शुश्रूषा में लगे रहते हैं, उन नयनाभिराम श्रीराम को देश निकाला दे देने की इच्छा तुझे किसलिये हो रही है? मैं बूढ़ा हूँ। मौत के किनारे बैठा हूँ। मेरी अवस्था शोचनीय हो रही है और मैं दीनभाव से तेरे सामने गिड़गिड़ा रहा हूँ। तुझे मुझ पर दया करनी चाहिये।
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