वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, राजा दशरथ ने जब अपनी रानी कैकेयी को कोपभवन में देखा तो वो काँप उठे और उसे नाना प्रकार के प्रलोभन देने लगे।

शिव पुराण

विस्तार

वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, राजा दशरथ ने जब अपनी रानी कैकेयी को कोपभवन में देखा तो वो काँप उठे और उसे नाना प्रकार के प्रलोभन देने लगे। अंत में कैकेयी बोली, न तो किसी ने मेरा अपकार किया है और न किसी के द्वारा मैं अपमानित या निन्दित ही हुई हूँ। मेरा कोई एक अभिप्राय (मनोरथ) है और मैं आपके द्वारा उसकी पूर्ति चाहती हूँ। यदि आप उसे पूर्ण करना चाहते हों तो प्रतिज्ञा कीजिये।

इसके बाद मैं अपना वास्तविक अभिप्राय आपसे कहूँगी। महाराज दशरथ काम के अधीन हो रहे थे। वे कैकेयी की बात सुनकर किंचित् मुस्कराये और पृथ्वी पर पड़ी हुई उस देवी के केशों को हाथ से पकड़कर उसके सिर को अपनी गोद में रखकर उससे इस प्रकार बोले, क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि नरश्रेष्ठ श्रीराम के अतिरिक्त दूसरा कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो मुझे तुमसे अधिक प्रिय हो?

जो प्राणों के द्वारा भी आराधनीय हैं और जिन्हें जीतना किसी के लिये भी असम्भव है, उन प्रमुख वीर महात्मा श्रीराम की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारी कामना पूर्ण होगी। अतः तुम्हारे मन की जो इच्छा हो उसे बताओ। जिन्हें दो घड़ी भी न देखनेपर निश्चय ही मैं जीवित नहीं रह सकता, उन श्रीरामकी शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम जो कहोगी, उसे पूर्ण करूँगा। रानी कैकेयी का मन स्वार्थ की सिद्धि में ही लगा हुआ था।

उसके हृदय में भरत के प्रति पक्षपात था और राजा को अपने वश में देखकर हर्ष हो रहा था। वो बोली, आप जिस तरह क्रमशः शपथ खाकर मुझे वर देने को उद्यत हुए हैं, उसे इन्द्र आदि तैंतीस देवता सुन लें। चन्द्रमा, सूर्य, आकाश, ग्रह, रात, दिन, दिशा, जगत् , यह पृथ्वी, गन्धर्व, राक्षस, रात में विचरने वाले प्राणी, घरों में रहने वाले गृह देवता तथा इनके अतिरिक्त भी जितने प्राणी हों, वे सब आपके कथन को जान लें -आपकी बातों के साक्षी बनें।

महातेजस्वी, सत्यप्रतिज्ञ, धर्म के ज्ञाता, सत्यवादी तथा शुद्ध आचार-विचार वाले ये महाराज मुझे वर दे रहे हैं। जैसे मृग बहेलिये की वाणी मात्र से अपने ही विनाश के लिये उसके जाल में फँस जाता है, उसी प्रकार कैकेयी के वशीभूत हुए राजा दशरथ उस समय पूर्वकाल के वरदान-वाक्य का स्मरण कराने मात्र से अपने ही विनाश के लिये प्रतिज्ञा के बन्धन में बँध गये।

तदनन्तर कैकेयी ने काममोहित होकर वर देने के लिये उद्यत हुए राजा से इस प्रकार कहा, यह जो श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी की गयी है, इसी अभिषेक-सामग्री द्वारा मेरे पुत्र भरत का अभिषेक किया जाय। धीर स्वभाव वाले श्रीराम तपस्वी के वेश में वल्कल तथा मृगचर्म धारण करके चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में जाकर रहें। भरत को आज निष्कण्टक युवराज पद प्राप्त हो जाए।

आप ऐसी व्यवस्था करें, जिससे मैं आज ही श्रीराम को वन की ओर जाते देखूं। आप राजाओं के राजा हैं; अतः सत्य प्रतिज्ञ बनिये और उस सत्य के द्वारा अपने कुल, शील तथा जन्म की रक्षा कीजिये। तपस्वी पुरुष कहते हैं कि सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ धर्म है। वह परलोक में निवास होने पर मनुष्यों के लिये परम कल्याणकारी होता है।