Valmiki Ramayana Part 92: कैकेयी को कोप भवन में देखकर राजा दशरथ हुए व्यथित! नाना प्रकार के दिए प्रलोभन

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Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, रानी कैकेयी कोपभवन में प्रवेश करती है और राजा दशरथ को इस बात का ज्ञान नहीं होता है।

वाल्मिकी रामायण

विस्तार

Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, रानी कैकेयी कोपभवन में प्रवेश करती है और राजा दशरथ को इस बात का ज्ञान नहीं होता है। वो रानी की सेविका से रानी के बारे में पूछते है और वो उनसे कहती है कि, देवी कैकेयी अत्यन्त कुपित हो कोपभवन की ओर दौड़ी गयी हैं। यह बात सुनकर राजा का मन बहुत उदास हो गया, उनकी इन्द्रियाँ चञ्चल एवं व्याकुल हो उठीं और वे पुनः अधिक विषाद करने लगे। कोपभवन में वह भूमि पर पड़ी थी और इस तरह लेटी हुई थी, जो उसके लिये योग्य नहीं था। राजा ने दुःख के कारण संतप्त-से होकर उसे इस अवस्था में देखा।

राजा बूढ़े थे और उनकी वह पत्नी तरुणी थी, अतः वे उसे अपने प्राणों से भी बढ़कर मानते थे। राजा के मन में कोई पाप नहीं था परंतु कैकेयी अपने मन में पाप पूर्ण संकल्प लिये हुए थी। उन्होंने उसे कटी हुई लता की भाँति पृथ्वी पर पड़ी देखा, मानो कोई देवाङ्गना स्वर्ग से भूतल पर गिर पड़ी हो। वह स्वर्गभ्रष्ट किन्नरी, देवलोक से च्युत हुई अप्सरा, लक्ष्यभ्रष्ट माया और जाल में बँधी हुई हरिणी के समान जान पड़ती थी। जैसे कोई महान् गजराज वन में व्याध के द्वारा विषलिप्त बाण से विद्ध होकर गिरी हई अत्यन्त दुःखित हथिनी का स्नेहवश स्पर्श करता है, उसी प्रकार कामी राजा दशरथ ने महान् दुःख में पड़ी हुई कमलनयनी भार्या कैकेयी का स्नेहपूर्वक दोनों हाथों से स्पर्श किया।

उस समय उनके मन में सब ओर से यह भय समा गया था कि न जाने यह क्या कहेगी और क्या करेगी? वो बोले, तुम्हारा क्रोध मुझ पर है, ऐसा तो मुझे विश्वास नहीं होता। फिर किसने तुम्हारा तिरस्कार किया है ? किसके द्वारा तुम्हारी निन्दा की गयी है? तुम जो इस तरह मुझे दुःख देने के लिये धूल में लोट रही हो, इसका क्या कारण है? मेरे चित्त को मथ डालने वाली सुन्दरी ! मेरे मन में तो सदा तुम्हारे कल्याण की ही भावना रहती है। फिर मेरे रहते हए तुम किसलिये धरती पर सो रही हो? जान पड़ता है तुम्हारे चित्तपर किसी पिशाच ने अधिकार कर लिया है।

तुम न रोओ, अपनी देह को न सुखाओ, आज तुम्हारी इच्छा के अनुसार किस अवध्य का वध किया जाय? अथवा किस प्राण दण्ड पाने योग्य अपराधी को भी मुक्त कर दिया जाय? किस दरिद्र को धनवान् और किस धनवान् को कंगाल बना दिया जाय? तुम्हारे किसी भी मनोरथ को मैं भंग नहीं कर सकता। उसे पूरा करके ही रहूँगा, चाहे उसके लिये मुझे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें; अतः तुम्हारे मन में जो कुछ हो, उसे स्पष्ट कहो। अपने बल को जानते हुए भी तुम्हें मुझ पर संदेह नहीं करना चाहिये। मैं अपने सत्कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ, जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो, वही करूँगा।

राजा के ऐसा कहने पर कैकेयी को कुछ सान्त्वना मिली। अब उसे अपने स्वामी से वह अप्रिय बात कहने की इच्छा हुई। उसने पति को और अधिक पीड़ा देने की तैयारी की। भूपाल दशरथ कामदेव के बाणों से पीड़ित तथा कामवेग के वशीभूत हो उसी का अनुसरण कर रहे थे।

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