शिव पुराण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि मेना ने जैसे ही शिव के रूप को देखा वो बेहोश हो गई और बेसुध होकर ज़मींन पर गिर गई और बाद में उनकी सखियों की मदद से उन्हें होश में लाया गया।

मेना ने नारद जी और पार्वती को क्यों सुनाई खरी खोटी

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शिव पुराण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि मेना ने जैसे ही शिव के रूप को देखा वो बेहोश हो गई और बेसुध होकर ज़मींन पर गिर गई और बाद में उनकी सखियों की मदद से उन्हें होश में लाया गया। जब हिमाचल प्रिया सती मेना को चेत हुआ, तब वे अत्यन्त क्षुब्ध होकर विलाप एवं तिरस्कार करने लगीं। पहले तो उन्होंने अपने पुत्रों की निन्दा की, इसके बाद वे नारद जी और अपनी पुत्री को दुर्वचन सुनाने लगीं।

मेना बोलीं-नारद, पहले तो तुमने यह कहा कि ‘शिवा शिव का वरण करेगी’, पीछे मेरे पति हिमवान् का कर्तव्य बताकर उन्हें आराधना-पूजा में लगाया। परंतु इसका यथार्थ फल क्या देखा गया? विपरीत एवं अनर्थकारी ! दुर्बुद्धि देवर्षे ! तुमने मुझ अधम नारी को सब तरहसे ठग लिया। फिर मेरी बेटी ने ऐसा तप किया, जो मुनियों के लिये भी दुष्कर है; उसकी उस तपस्या का यह फल मिला, जो देखने वालों को भी दुःख में डालता है।

हाय ! मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कौन मेरे दुःख को दूर करेगा? मेरा कुल आदि नष्ट हो गया, मेरे जीवन का भी नाश हो गया। कहाँ गये वे दिव्य ऋषि? वसिष्ठ की वह तपस्विनी पत्नी भी बड़ी धूर्ता है, वह स्वयं इस विवाह के लिये अगुआ बनकर आयी थी। न जाने किन-किनके अपराध से इस समय मेरा सब कुछ लुट गया। ऐसा कहकर मेना अपनी पुत्री शिवा की ओर देखकर उन्हें कटु वचन सुनाने लगीं -‘अरी दुष्ट लड़की ! तूने यह कौन-सा कर्म किया, जो मेरे लिये दुःखदायक सिद्ध हुआ?

तुझ दुष्टा ने स्वयं ही सोना देकर काँच खरीदा है, चन्दन छोड़कर अपने अंगों में कीचड़ का ढेर पोत लिया। हंस को उड़ाकर तूने पिंजड़े में कौआ पाल लिया। गंगाजल को दूर फेंककर कुएँ का जल पीया। प्रकाश पाने की इच्छा से सूर्य को छोड़कर यत्नपूर्वक जुगनू को पकड़ा। चावल छोड़कर भूसी खा ली। घी फेंककर मोम के तेल का आदरपूर्वक भोग लगाया। सिंह का आश्रय छोड़कर सियार का सेवन किया। ब्रह्मविद्या छोड़कर कुत्सित गाथा का श्रवण किया।

बेटी ! तूने घर में रखी हुई यश की मंगलमयी विभूति को दूर हटाकर चिता की अमंगलमयी राख अपने पल्ले बाँध ली, क्योंकि समस्त श्रेष्ठ देवताओं और विष्णु आदि परमेश्वरों को छोड़कर अपनी कुबुद्धि के कारण शिव को पाने के लिये ऐसा तप किया? तुझको, तेरी बुद्धि को, तेरे रूप को और तेरे चरित्र को भी बारंबार धिक्कार है ,नारद ! तुम्हारी बुद्धि को भी धिक्कार है। सुबुद्धि देने वाले उन सप्तर्षियों को भी धिक्कार है। तुम्हारे कुल को धिक्कार है। तुम्हारी क्रिया-दक्षता को भी धिक्कार है तथा तुमने जो कुछ किया, उस सबको धिक्कार है। तुमने तो मेरा घर ही जला दिया।

 

यह तो मेरा मरण ही है। ये पर्वतों के राजा आज मेरे निकट न आयें। सप्तर्षि लोग स्वयं मुझे अपना मुँह न दिखायें। इन सबने मिलकर क्या साधा ? मेरे कुल का नाश करा दिया। मैं बाँझ क्यों नहीं हो गयी ? मेरा गर्भ क्यों नहीं गल गया? मैं अथवा मेरी पुत्री ही क्यों नहीं मर गयी? अथवा राक्षस आदि ने भी आकाश में ले जाकर इसे क्यों नहीं खा

डाला? पार्वती ! आज मैं तेरा सिर काट डालूँगी, परंतु ये शरीर के टुकड़े लेकर क्या करुँगी। हाय ! तुझे छोड़कर कहाँ चली जाऊँ? मेरा तो जीवन ही नष्ट हो गया। यह कहकर मेना मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ीं। शोक- रोष आदि से व्याकुल होने के कारण वे पति के समीप नहीं गयीं।