Bhagavad Gita Part 88: विशुद्ध बुद्धि युक्त कर्मयोगी के क्या लक्षण है? वो अपने कर्म के बारे में क्या विचार करत

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भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, व्यक्ति को सीधे ही कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। उसे धीरे -2 अभ्यास के द्वारा सांसारिक मोह, क्रोध और अपनी कामनाओं को नष्ट करना चाहिए।

भगवद गीता

विस्तार

भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, व्यक्ति को सीधे ही कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। उसे धीरे -2 अभ्यास के द्वारा सांसारिक मोह, क्रोध और अपनी कामनाओं को नष्ट करना चाहिए।

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः, सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते (अध्याय 5 श्लोक 7 )

योग-युक्त:-चेतना को भगवान में एकीकृत करना; विशुद्ध-आत्मा:-शुद्ध बुद्धि के साथ; विजित-आत्मा-मन पर विजय पाने वाला; जितेन्द्रियः-इन्द्रियों को वश में करने वाला; सर्व-भूत-आत्म-भूत आत्मा-जो सभी जीवों की आत्मा में आत्मरूप परमात्मा को देखता है। कुर्वन्-निष्पादन, अपिः-यद्यपि; न कभी नहीं; लिप्यते-बंधता।

अर्थ - जो कर्मयोगी विशुद्ध बुद्धि युक्त हैं, अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखते हैं और सभी जीवों की आत्मा में आत्मरूप परमात्मा को देखते हैं, वे सभी प्रकार के कर्म करते हुए कभी कर्मबंधन में नहीं पड़ते।

व्याख्या - श्री कृष्ण इस श्लोक में समझाते है कि कर्मयोगी कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है। दरअसल उसकी आत्मा की चेतना का सीधा जुड़ाव ईश्वर से हो जाता है। उसे ज्ञानयोग से युक्त बुद्धि प्राप्त हो जाती है जिससे वह अपने सबसे बड़े शत्रु मन को काबू में कर लेता है ,जब व्यक्ति का मन काबू में आता है तो उसकी बुद्धि सात्विक हो जाती है और उसकी इन्द्रियाँ फिर उसके वश में हो जाती है।

इस प्रकार सभी जीवों में वो ईश्वर को देख पाने में समर्थ हो जाते है और कर्म फल से स्वयं को मुक्त कर लेता है। ऐसे कर्मयोगी की श्री कृष्ण ने प्रशंसा की है।

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्, पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपश्वसन्

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि, इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ( अध्याय 5 श्लोक 8,9 )

न-नहीं; एव-निश्चय ही; किंचित्-कुछ भी; करोमि मैं करता हूँ; इति–इस प्रकार; युक्तः-कर्मयोग में दृढ़ता से स्थित; मन्येत–सोचता है; तत्त्ववित्-सत्य को जानने वाला; पश्यन्–देखते हुए; शृण्वन्–सुनते हुए; स्पृशन्-स्पर्श करते हुए; जिघ्रन्-सूंघते हुए; अश्नन्-खाते हुए; गच्छन्-जाते हुए; स्वपन्-सोते हुए; श्वसन्–साँस लेते हुए; प्रलपन्–बात करते हुए; विसृजन्–त्यागते हुए; गृह्णन्–स्वीकार करते हुए; उन्मिषन्–आंखें खोलते हुए; निमिषन्–आंखें बन्द करते हुए; अपि-तो भी; इन्द्रियाणि-इन्द्रियों कोः इन्द्रिय-अर्थेषु इन्द्रिय विषय; वर्तन्ते-क्रियाशील; इति–इस प्रकार; धारयन्–विचार करते हुए।

अर्थ - कर्मयोग में दृढ़ निश्चय रखने वाले सदैव देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते, चलते-फिरते, सोते हुए, श्वास लेते हुए, बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए और आंखें खोलते या बंद करते हुए सदैव यह सोचते हैं- 'मैं कर्ता नहीं हूँ' और दिव्य ज्ञान के आलोक में वे यह देखते हैं कि भौतिक इन्द्रियाँ ही केवल अपने विषयों में क्रियाशील रहती हैं।

व्याख्या - ऐसा देखने में आता है कि व्यक्ति जब कोई कर्म करता है या किसी कार्य का सम्पादन करता है तो उसके अंदर कर्ता का भाव आ जाता है। जब आप उसके कार्य की तारीफ़ करते हुए कुछ कहते है तो वह यही कहता है कि " ये तो मैंने किया है" ! ऐसे व्यक्ति कभी भी कर्मयोग को नहीं समझ सकते है और ना ही उसका पालन कर सकते है ,श्री कृष्ण ने इस श्लोक में कर्मयोगी के कुछ लक्षण कहे है।

वो कहते है, कि कर्मयोगी किसी भी अवस्था में खुद को कर्म का जनक नहीं मानता है। उसके पास गुरु कृपा से दिव्य ज्ञान होता है जिसके कारण वो समझता है कि सिर्फ भौतिक इन्द्रियाँ ही संसार के भोग के प्रति क्रियाशील है और वो उसे अपना कर्तव्य समझकर करता है। उसे कर्म के फल से कोई फर्क नहीं पड़ता है और ना ही खुद को उस कर्म का कर्ता मानता है।

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