Bhagavad Gita Part 87: क्या व्यक्ति अपने कर्म को पूरी तरह त्याग सकता है? किस अवस्था म व्यक्ति ऐसा कर सकता है?
भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, कर्मयोग और कर्म संन्यास को भिन्न नहीं समझना चाहिए। दरअसल ये दोनों मार्ग आपको श्री भगवान के करीब ले जाने की ताकत रखते है।
विस्तार
भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, कर्मयोग और कर्म संन्यास को भिन्न नहीं समझना चाहिए। दरअसल ये दोनों मार्ग आपको श्री भगवान के करीब ले जाने की ताकत रखते है।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते, एकं सायं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ( अध्याय 5 श्लोक 5 )
यत-क्या; साङ्ख्यैः -कर्म संन्यास के अभ्यास द्वारा प्राप्यते-प्राप्त किया जाता है। स्थानम्-स्थान; तत्-वह; योगैः-भक्ति युक्त कर्म द्वारा; अपि-भी; गम्यते-प्राप्त करता है; एकम्-एक; सांख्यम्-कर्म का त्यागः च-तथा; योगम्-कर्मयोगः च-तथा; यः-जो; पश्यति-देखता है; स:-वह; पश्चति-वास्तव में देखता है।
अर्थ - श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म संन्यास के माध्यम से जो प्राप्त होता है उसे भक्ति युक्त कर्मयोग से भी प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार जो कर्म संन्यास और कर्मयोग को एक समान देखते हैं वही वास्तव में सभी वस्तुओं को
यथावत रूप में देखते हैं।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण पिछले श्लोक की बात को ही आगे लेकर जाते है। वो समझाते है कि, कर्म संन्यास के द्वारा जो व्यक्ति प्राप्त करता है उसे कर्मयोगी भी प्राप्त कर सकता है। आम तौर पर कई लोगों को इस बात का मोह हो जाता है कि कर्मयोगी चूँकि इस संसार के कर्मों के प्रति जुड़ा रहता है इसलिए उसका आध्यात्मिक अनुभव कर्म संन्यासी से कम होता होगा !
लेकिन श्री कृष्ण इस श्लोक में इस बात को स्पष्ट करते है कि दोनों को समान भक्ति प्राप्त होती है। और जो दोनों को एक देखने की चेष्टा करता है वहीं संसार की सभी वस्तुओं को यथावत देख पायेगा।
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः , योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्य नचिरेणाधिगच्छति ( अध्याय 5 श्लोक 6 )
संन्यासः-वैराग्य; तु–लेकिन; महाबाहो बलिष्ठ भुजाओं वाला, अर्जुन; दुःखम्-दुख; आप्तुम्–प्राप्त करता है; अयोगतः-कर्म रहित; योग–युक्त:-कर्मयोग में संलग्न; मुनिः-साधुः ब्रह्म-परम सत्य; न चिरेण-शीघ्र ही; अधिगच्छति–पा लेता है।
अर्थ - भक्तियुक्त होकर कर्म किए बिना पूर्णतः कर्मों का परित्याग करना कठिन है। हे महाबलशाली अर्जुन ! किन्तु जो संत कर्मयोग में संलग्न रहते हैं, वे शीघ्र परम परमेश्वर को पा लेते हैं।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण समझा रहे है कि व्यक्ति को सीधे ही कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। उसे धीरे 2 अभ्यास के द्वारा सांसारिक मोह, क्रोध और अपनी कामनाओं को नष्ट करना चाहिए। जब तक व्यक्ति अपने मन को शुद्ध और पवित्र नहीं करेगा तब तक वो भक्तियुक्त कर्म यानी कि कर्मयोग में संलग्न नहीं हो सकता है।
लेकिन जैसे ही व्यक्ति कर्मयोग के इस ज्ञान को समझ जाता है फिर उनके लिए ईश्वर की भक्ति को प्राप्त करना कोई कठिन कार्य नहीं होता है। एक व्यक्ति चाहे कितना ही जंगल में रहे और स्वयं को सिद्ध ज्ञानी समझे लेकिन उसके ज्ञान की परीक्षा तो तभी होगी जब वो संसार के कर्म को करेगा।
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