Bhagavad Gita Part 86: कर्मयोगी और कर्मसंन्यासी, क्या ये दोनों अलग है? श्री कृष्ण ने दिया ये सुन्दर जवाब

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भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, कृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा कि कर्मयोगी को कर्म संन्यासी से उत्तम माना गया है। आगे कृष्ण बोले,

भगवद्गीता

विस्तार

भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, कृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा कि कर्मयोगी को कर्म संन्यासी से उत्तम माना गया है। आगे कृष्ण बोले,

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति। निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ( अध्याय 5 श्लोक 3 )

ज्ञेयः-मानना चाहिएः सः-वह मनुष्य; नित्य-सदैव; संन्यासी-वैराग्य का अभ्यास करने वाला; यः-जो; न कभी नहीं; द्वेष्टि-घृणा करता है; न-न तो; काङ्क्षति-कामना करता है; निर्द्वन्द्वः सभी द्वंदों से मुक्त; हि-निश्चय ही; महाबाहो बलिष्ठ भुजाओं वाला अर्जुन; सुखम्-सरलता से; बन्धात्-बन्धन से; प्रमुच्यते-मुक्त होना।

अर्थ - वे कर्मयोगी जो न तो कोई कामना करते हैं और न ही किसी से घृणा करते हैं उन्हें नित्य संन्यासी माना जाना चाहिए। हे महाबाहु अर्जुन ! सभी प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होने के कारण वे माया के बंधनों से सरलता से मुक्ति पा लेते हैं।

व्याख्या - हम सब इस बात को जानते है कि जो कर्मयोगी है उसकी न कोई कामना होती है और न कोई इच्छा होती है। लेकिन कर्मयोगी को अपने संसार के कर्तव्य निभाने पड़ते है। ऐसे में अपने आंतरिक मन को शुद्ध करना बेहद कठिन है।

इस संसार में रहते हुए मनुष्य क्रोध, द्वेष, अहंकार से मुक्त नहीं हो सकता है उसके लिए बहुत कठिन अभ्यास करना होगा। लेकिन कर्मयोगी इस सबसे मुक्त हो जाते है। उनकी बुद्धि शुद्ध हो जाती है। इसी कारण के प्रकृति की माया से मुक्त हो जाते है। इसलिए श्री कृष्ण ने कर्मयोगी को उत्तम कहा है।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः , एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ( अध्याय 5 श्लोक 4 )

सांख्य-कर्म का त्याग; योगौ-कर्मयोगः पृथक्-भिन्न; बाला:-अल्पज्ञ; प्रवदन्ति-कहते हैं; न कभी नहीं; पण्डिताः-विद्वान्; एकम्-एक; अपि-भी; आस्थित:-स्थित होना; सम्यक्-पूर्णतया; उभयोः-दोनों का; विन्दते-प्राप्त करना है; फलम् परिणाम।

अर्थ - केवल अज्ञानी ही 'सांख्य' या 'कर्म संन्यास' को कर्मयोग से भिन्न कहते हैं जो वास्तव में ज्ञानी हैं, वे यह कहते हैं कि इन दोनों में से किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से वे दोनों का फल प्राप्त कर सकते हैं।

व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण समझाते है कि कर्मयोग और कर्म संन्यास को भिन्न नहीं समझना चाहिए। दरअसल ये दोनों मार्ग आपको श्री भगवान के करीब ले जाने की ताकत रखते है। ऐसे में व्यक्ति इन दोनों में से किसी भी एक मार्ग का अगर अनुसरण कर ले तो उसे भक्ति का प्रसाद प्राप्त हो सकता है।

कर्मयोगी भले ही शरीर से संसार के कर्म करता है लेकिन उसके मन में सदैव वैराग्य की भावना ही होती है। वो अपने सारे कर्म और उनके फलों को श्री भगवान् को सौंप देते है इसलिए देखा जाए तो उनकी आंतरिक स्थिति कर्म संन्यासी के जैसे ही हो जाती है। इसलिए श्री कृष्ण का यह कथन बिल्कुल उचित है कि ज्ञानी व्यक्ति इन दोनों में किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं करता है क्योंकि दोनों ही कर्ता के भाव से मुक्त रहते है।

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