Valmiki Ramayana Part 86: राम के राजा बनने की बात से भड़क उठी मंथरा ! जानें आगे क्या हुआ
वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम ने अपनी पत्नी के साथ नारायण का पूजन किया और कुश की चटाई पर सोए। उस समय अयोध्यावासी मनुष्यों ने जब यह सुना कि श्री रामचन्द्रजी ने सीता के साथ उपवास-व्रत आरम्भ कर दिया है
विस्तार
वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम ने अपनी पत्नी के साथ नारायण का पूजन किया और कुश की चटाई पर सोए। उस समय अयोध्यावासी मनुष्यों ने जब यह सुना कि श्री रामचन्द्रजी ने सीता के साथ उपवास-व्रत आरम्भ कर दिया है, तब उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। सबेरा होने पर श्रीराम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर समस्त पुरवासी अयोध्यापुरी को सजाने में लग गये। राज्याभिषेक होते-होते रात हो जाने की आशङ्का से प्रकाश की व्यवस्था करने के लिये पुरवासियों ने सब ओर सड़कों के दोनों तरफ वृक्ष की भाँति अनेक शाखाओं से युक्त दीपस्तम्भ खड़े कर दिये। उस समय श्रीराम के अभिषेक का उत्सव देखने के लिये पधारे हुए जनपदवासी मनुष्यों द्वारा सब ओर से भरा हुआ वह इन्द्रपुरी के समान नगर अत्यन्त कोलाहलपूर्ण होने के कारण मकर, नक्र, तिमिङ्गल आदि विशाल जल-जन्तुओं से परिपूर्ण महासागर के समान प्रतीत होता था।
रानी कैकेयी के पास एक दासी थी, जो उसके मायके से आयी हुई थी। वह सदा कैकेयी के ही साथ रहा करती थी। उसका जन्म कहाँ हुआ था? उसके देश और माता-पिता कौन थे? इसका पता किसी को नहीं था। उस दासी का नाम था-मन्थरा। उसने कैकेयी के महल की छत से देखा, अयोध्या की सड़कों पर छिड़काव किया गया है और सारी पुरी में यत्र-तत्र खिले हुए कमल और उत्पल बिखेरे गये हैं। सारे नगर निवासी हर्षजनित रोमाञ्च से युक्त और आनन्द मग्न हैं तथा नगर में सब ओर श्रेणी बद्ध ऊँचे ऊँचे ध्वज फहरा रहे हैं। अयोध्या की ऐसी शोभा को देखकर मन्थरा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पास के ही कोठे पर राम की धाय को खड़ी देखा, उसके नेत्र प्रसन्नता से खिले हुए थे और शरीर पर पीले रंग की रेशमी साड़ी शोभा पा रही थी। उसे देखकर मन्थरा ने इस उत्सव का कारण पूछा।
उसने बताया, घुनाथजी को बहुत बड़ी सम्पत्ति प्राप्त होने वाली है। कल महाराज दशरथ पुष्य नक्षत्र के योग में क्रोध को जीतने वाले, पापरहित, रघुकुलनन्दन श्रीराम को युवराज के पद पर अभिषिक्त करेंगे। मन्थरा को इसमें कैकेयी का अनिष्ट दिखायी देता था, वह क्रोध से जल रही थी। उसने महल में लेटी हुई कैकेयी के पास जाकर उसे भड़काने का निश्चय कर लिया। वो अपनी रानी से बोली, ‘मूर्खे ! उठ। क्या सो रही है? तुझ पर बड़ा भारी भय आ रहा है। तेरे ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है, फिर भी तुझे अपनी इस दुरवस्था का बोध नहीं होता?’ तेरे प्रियतम तेरे सामने ऐसा आकार बनाये आते हैं मानो सारा सौभाग्य तुझे ही अर्पित कर देते हों, परंतु पीठ-पीछे वे तेरा अनिष्ट करते हैं। तू उन्हें अपने में अनुरक्त जानकर सौभाग्य की डींग हाँका करती है, परंतु जैसे ग्रीष्म ऋतु में नदी का प्रवाह सूखता चला जाता है, उसी प्रकार तेरा वह सौभाग्य अब अस्थिर हो गया है तेरे हाथ से चला जाना चाहता है।
इष्ट में भी अनिष्ट का दर्शन कराने वाली रोष भरी कुब्जा के इस प्रकार कठोर वचन कहनेपर कैकेयी के मन में बड़ा दुःख हुआ। उस समय केकय राजकुमारी ने कुब्जा से पूछा, मन्थरे ! कोई अमङ्गल की बात तो नहीं हो गयी ? क्योंकि तेरे मुख पर विषाद छा रहा है और तू मुझे बहुत दुःखी दिखायी देती है। मन्थरा बातचीत करने में बड़ी कुशल थी, वह कैकेयी के मीठे वचन सुनकर और भी खिन्न हो गयी, उसके प्रति अपनी हितैषिता प्रकट करती हुई कुपित हो उठी और कैकेयी के मन में श्रीराम के प्रति भेदभाव और विषाद उत्पन्न करती हुई बोली, तुम्हारे सौभाग्य के महान् विनाश का कार्य आरम्भ हो गया है, जिसका कोई प्रतीकार नहीं है। कल महाराज दशरथ श्रीराम को युवराज के पद पर अभिषिक्त कर देंगे। यह समाचार पाकर मैं दुःख और शोक से व्याकुल हो अगाध भय के समुद्र में डूब गयी हूँ। चिन्ता की आग से मानो जली जा रही हूँ और तुम्हारे हित की बात बताने के लिये यहाँ आयी हूँ।
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