Bhagavad Gita Part 84: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, जिन अज्ञानी लोगों में न तो श्रद्धा और न ही ज्ञान है और जो संदेहास्पद प्रकृति के होते हैं उनका पतन होता है।
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Bhagavad Gita Part 84: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, जिन अज्ञानी लोगों में न तो श्रद्धा और न ही ज्ञान है और जो संदेहास्पद प्रकृति के होते हैं उनका पतन होता है।
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्, आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय { अध्याय 4 श्लोक 41 }
योगसंन्यस्त-कर्माणम-वे जो कर्म काण्डों का त्याग कर देते हैं और अपने मन, शरीर और आत्मा को भगवान के प्रति समर्पित कर देते हैं; ज्ञान-ज्ञान से; सञिछन्न-दूर कर देते हैं; संशयम्-सन्देह को; आत्मवन्तम्-आत्मज्ञान में स्थित होकर; न कभी नहीं; कर्माणि कर्म; निबध्नन्ति–बाँधते हैं; धनन्जय- धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन।
अर्थ - कर्म उन लोगों को बंधन में नहीं डाल सकते जिन्होंने योग की अग्नि में कर्मों को विनष्ट कर दिया है और ज्ञान द्वारा जिनके समस्त संशय दूर हो चुके हैं वे वास्तव में आत्मज्ञान में स्थित हो जाते हैं।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण कहते है कि कर्म उन्ही लोगों को अपने बंधन में डालता है जो कि, निजी स्वार्थ के लिए कर्म करते है। लेकिन जो ईश्वर के भक्त है, जिनकी बुद्धि ज्ञान में स्थिर है उन्हें कर्म कभी भी बंधन में नहीं डाल सकता है। क्यूंकि स्वाध्याय की अग्नि में उन्होंने अपने कर्मों के फल को नष्ट कर दिया है और आत्मज्ञान के द्वारा उनके सारे संदेह दूर हो गए है। इसलिए ऐसे लोग आत्मज्ञान में स्थित हो जाते है।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः, छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत { अध्याय 4 श्लोक 42 }
तस्मात्-इसलिए; अज्ञान-सम्भूतम्-अज्ञान से उत्पन्नहृत्स्थम् हृदय में स्थित; ज्ञान ज्ञान; असिना–खड्ग से; आत्मनः-स्व के छित्त्वा-काटकर; एनम्-इस; संशयम्-संदेह को; योगम्-कर्म योग में; अतिष्ठ-शरण लो; उत्तिष्ठ-उठो; भारत-भरतवंशी, अर्जुन।
अर्थ - अतः तुम्हारे हृदय में अज्ञानतावश जो संदेह उत्पन्न हुए हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट दो। हे भरतवंशी अर्जुन! स्वयं को योग में निष्ठ करो। उठो खड़े हो जाओ और युद्ध करो।
व्याख्या - भगवद्गीता के चौथे अध्याय का यह आखिरी श्लोक है। इस श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है कि तुम अपने मन में के सभी संदेह को नष्ट करो। दरअसल, कोई भी मनुष्य जब मोह में पड़ता है तो सबसे पहले उसका मन ही अस्थिर होता है। इसलिए उस शत्रु को नष्ट करके का जो शस्त्र है वो ज्ञान है। और वो दिव्य ज्ञान योग में स्थिर होने से प्राप्त होगा, प्रामाणिक गुरु की शरण में जाने से प्राप्त होगा और जब तुम अपनी बुद्धि को ज्ञानयोग में समाहित कर दोगे तब तुम्हारे लिए युद्ध सिर्फ एक कर्म मात्र रहेगा और उसे भी तुम्हे मुझे ही सौंप देना है।